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निर्भया, गुड़िया, दामिनी – और कितने नाम रखोगे ?

१६ दिसम्बर २०१२ की रात मानवता पर हमेशा के लिए कालिख लगा कर चली गयी, जब दिल्ली में चलती बस में ६ लोगों ने एक २३ वर्षीय लड़की का बलात्कार किया और उसे मरणासन्न हालत में बस से बाहर फेंक दिया। हमने नाम रख दिया – ‘ निर्भया ‘ यानी बहादुर , किसी से न डरने वाली।

लोग सड़कों पर उतरे, कैंडल मार्च हुए, दोषियों को गिरफ्तार किया, निर्भया फण्ड बना, कानूनों में तब्दीली हुई। ऐसा लगा जैसे एक क्रांति आने वाली है। सब कुछ सही हो जायेगा। अब इस देश की महिलाएं हमेशा के लिए सुरक्षित हो जाएँगी । लेकिन ये भ्रम टूटने में ज्यादा समय नहीं लगा। मंदसोर कांड, लातूर काण्ड, उन्नाव, हाथरस, हैदराबाद – एक के बाद एक घटनाएं होती रही। उस जघन्य काण्ड के ८ साल बीतने पर भी लड़कियां उतनी ही असुरक्षित है जितनी पहले थी।

हर घटना के बाद पीड़िता को नए नाम से नवाज़ दिया जाता है- निर्भया, वीरा, गुड़िया,दामिनी आदि, पर इन सबसे महिलाओं के प्रति सोच में कोई बदलाव नहीं आता।

बलात्कार पीड़ितों को बहादुर नामों से संबोधित कर देने मात्र से हमारी जिम्मेदारी ख़त्म नहीं होती। जिस महिला को ऐसे अमानवीय यातना और दर्द का सामना करना पड़ा है, क्या उसके दर्द और भय का अंदाजा भी लगाया जा सकता है? हो सकता है वो ऐसी परिस्तिथि में विरोध करने, साहस दिखाने या लड़ने की बजाय भय से काँप रही हो।

बहादुर क्या, उनसे तो एक सामान्य जीवन जीने का अधिकार भी छीन लिया गया। वो शहीद नहीं शिकार हुई थी, उस विकृत मानसिकता की, जिसमे औरत को इंसान का दर्जा भी नहीं दिया जाता, जहाँ औरत वासना और भोग की एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं।

सच कड़वा होता है और सच तो यह है कि आज कोई औरत ‘ निर्भया ’ नहीं है। निर्भय है तो वो अपराधी, जो आदमी की शक्ल में हैवान हैं। उन्हें एक औरत के शरीर को गिद्धों की तरह नोचते हुए, जलाते-मारते हुए, उनके शरीर में कांच की बोतल, लोहे की रोड डालते हुए किस आनंद की अनुभूति होती है, समझ नहीं आता। सोचने की बात ये है कि इस तरह के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और कोई कड़ा कानून बलात्कारियों में डर पैदा नहीं कर पा रहा है।

इस देश की हर महिला डरी हुई है, डरती है कि उसके साथ कोई अनहोनी ना हो जाये। फिर वो भले ही घर के भीतर हो या घर से बाहर, अकेले कहीं जा रही हो या किसी के साथ, दिन का वक़्त हो या रात, भीड़ में हो या अकेले, छोटे कपडे पहने हो या सर से पाँव तक ढकी हुई, ६ महीने की बच्ची हो या ९० साल की वृद्धा

२०१२ के दिल्ली गैंग रेप केस के बाद जनता ने जो समर्थन दिखाया क्या इससे अपराधी प्रवृति वाले लोगों कि मानसिकता पर कोई भी असर पड़ा?

२०१३ से २०१९ तक के आंकड़ों को देखें तो दिल दहल उठता है। इन सालों में हर दिन ८७ – १०६ बलात्कार के मामले दर्ज कराये गए हैं। इसके अलावा कितने ही मामले होंगे जिनकी शिकायत पुलिस प्रशाषन तक पहुंची ही नहीं होगी। और यह तो सिर्फ बलात्कार के मामले हैं जो कि महिलाओं के खिलाफ अपराधिक मामलों का सिर्फ 10% है।

कुछ लोग बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को भी जस्टिफाई करने से नहीं चूकते। ” लड़की ने भैया क्यूँ नहीं कहा? “, ” औरत की भी इच्छा रही होगी।” २०१२ के निर्भया गैंगरेप केस के दोषियों की मानसिकता किस तरह की थी, इसका अंदाजा एक रेपिस्ट के बयान से लगाया जा सकता है। जेल में बंद एक दोषी मुकेश सिंह ने एक डॉक्युमेंट्री में कहा था- “अगर रात में लड़कियां निकलेंगी तो ऐसी घटनाएं होंगी। रेप के लिए आदमी से ज्यादा वह जिम्मेदार होगी।”

क्या इसका कोई हल है?

लड़कियों का घर पर ही रहना इसका कोई हल नहीं है। अगर ऐसा होता तो घर के सदस्यों द्वारा ऐसे जघन्य कृत्य हमारे समाज में नहीं होते, क्यूंकि विकृत सोच रिश्ते नहीं देखती। हर बार पश्चिमी संस्कृति को दोष देकर पल्ला झाड़ देना भी लड़कियों को ही और पाबंदियों की जंजीरों में जकड़ देने जैसा है।

सभ्य समाज सिर्फ औरतों के चाल-चलन पर निर्भर नहीं है।

साली को आधी घरवाली की जगह बहन मानिए। माँ-बहन की गालियाँ देनी बंद करें। सड़क पर लड़कियों को घूर घूर के देखना, उन पर फब्तियां कसना, गंदे नामों और अल्फाजों से पुकारना बंद करिए। उसका शरीर आपकी निजी संपत्ति नहीं कि बस, ट्रेन, सड़क कहीं भी मौका मिलते ही छूने की कोशिश करने लगें।

असली निर्भया सिर्फ नाम रख देने से पैदा नहीं होगी। हर औरत निर्भया होगी जब हर मर्द जिम्मेदार बनेगा, उन्हें सम्मान कि दृष्टि से देखेगा न कि किसी उपभोग की वस्तु के सामान।

यहाँ लड़ाई किसी औरत को नहीं लड़नी, बल्कि हर उस मर्द को लड़नी होगी जो अपनी संकीर्ण मानसिकता के दायरे से बाहर निकलने की कोशिश नहीं करना चाहता। हर औरत निर्भया होगी जब कानूनों में ही नहीं, सामजिक धारणा के स्तर पर भी उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा। समाज को नए सिरे से अपनी सोच, रीतियों-नीतियों को बदलना होगा।

इस असमानता को मिटाने की घर से ही शुरुआत करें। अलग-अलग दायरे नहीं हों लड़के और लड़कियों के लिए। मर्यादा में रहना बेटों को भी सिखाना होगा, क्यूंकि एक सुरक्षित समाज बनाने की जिम्मेदारी हमारी-आपकी सभी की है। क़ानून का फ़र्ज़ है गुनेहगार को सजा देना और हमारा फ़र्ज़ हैं कि हम अपने आसपास और भविष्य में आने वाली पीढ़ी को साफ़-सुथरी मानसिकता की सीख दें।

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