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सृजन- एक नई सोच का

आशा अपनी कॉलोनी के पार्क में बैठी किताब पढ़ रही थी और सुहानी शाम का आनंद ले रही थी। पास ही निकुंज, उसका 7 वर्ष का बेटा, अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था। आशा बीच-बीच में किताब से नज़रें हटाकर निकुंज पर ध्यान देती फिर किताब पढने लगती।

अचानक से उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा ।

“सरिता ? क्या बात है! कई दिनों बाद मिलना हो रहा है अपना । ”

“हाँ आशा, बच्चों की परीक्षा क्या होती है लगता है मेरी ही परीक्षा चल रही है । आज फ्री हुई हूँ, तो सोचा पार्क में टहल लूं । कोई न कोई जान पहचान का तो मिल ही जायेगा, ” सरिता ने आशा के बगल में बैठते हुए कहा । इधर-उधर की बातें करते करते सरिता ने कहा, “मैं सिर्फ घर के कामों में ही व्यस्त रहती हूँ । कभी-कभी लगता है कुछ तो ऐसा करूँ जिससे खुद को भी अच्छा लगे और दूसरों का भी भला हो । ”

आशा को अच्छा लगा कि सरिता भी उसके जैसी ही सोच रखती है और समाज के लिए कुछ करना चाहती है। “ मैं एक संस्था से जुडी हूँ, जिसका नाम है ‘सृजन’, जो गरीब-असहाय महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए उन्हें तरह-तरह के प्रशिक्षण देता है । अगर तुम्हारा मन हो तो तुम मेरे साथ चल सकती हो । सिर्फ शुक्रवार और शनिवार २ घंटे । ”

“ज़रूर, क्यूँ नहीं!” सरिता झट मान गयी ।

अगले ही दिन शनिवार था तो साथ में जाना तय हो गया । ‘सृजन’ में सभी मेम्बर्स से सरिता का परिचय हुआ ।

वापस लौटते वक़्त आशा ने सरिता से पुछा,” तो कैसा लगा पहली बार जाकर?”

“बहुत अच्छा.” सरिता ने कहा, पर उसके आवाज में वो भाव दिखे नहीं ।

“वो संध्या गुप्ता थी न, मेमबर्स में?” सरिता ने पुछा ।

“हाँ, क्या आप उन्हें पहले से जानती हैं ?”

“कभी बात नहीं हुई, पर पता है यहीं पास में रहती है । ”

“बहुत ही मिलनसार, बुद्धिमान और ज़िन्दादिल इंसान है । क्या प्रभावशाली व्यक्तित्व है इनका! वो भी सिर्फ ४० साल की उम्र में । बहुत कुछ सीखने को मिलता है इनसे । ” आशा जैसे संध्या जी की बातें करती-करती खो ही गयी ।

“वो विधवा है न ?” सरिता ने तपाक से पूछा ।

आशा ने ऐसे सवाल की कल्पना भी नहीं करी थी । अचानक से उनके निजी जीवन को बातों में लाने की क्या जरुरत ?

“हाँ,” कहकर आशा ने इस किस्से का रुख फिर दूसरी तरफ मोड़ दिया । शायद सरिता को इससे समझ आ जाये कि आशा को ऐसी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं । आशा बहुत ही परिपक्व दिमाग की धनी थी । वो समझ गयी थी कि सरिता को संध्या के निजी जीवन की बातें करके बातचीत को थोड़ा चटपटा बनाना था और आशा ऐसी बिलकुल भी नहीं थी ।

“वो कितने सालों से जुड़ी है यहाँ?”

“आप ये कह सकती हैं कि इस संस्था को शुरू करने का सारा श्रेय ही संध्या जी को जाता है । 7 साल पहले उन्होंने ‘सृजन’ बनाया पर कमाल की बात ये है कि कभी खुद सामने नहीं आई । बड़ी ऊंची सोच है ।”

पर सरिता को जैसे संध्या जी की बड़ाई में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं थी । इसी बीच आशा का घर आ गया ।

“अगले शुक्रवार समय से आ जाना । साथ में चलेंगे,” कहकर वो अपने घर की तरफ मुड़ गयी ।

आज की बातें काफी देर तक आशा के मन में आती रही । उसे अच्छा नहीं लगा जिस तरह सरिता ने उससे संध्या जी के विधवा होने के बारे में पुछा । “साफ़ दिख रह था कि सरिता ने जानबूझ के मुझसे ये सवाल किया था । वो जानना चाहती थी कि मुझे पता है या नहीं कि संध्या जी विधवा हैं,” आशा सब्जी काटते-काटते सोच रही थी । “पर क्यूँ? मैं तो सोचती थी कि सरिता एक पढ़ी लिखी समझदार औरत है । ऐसी कैसी पढाई जो ये भी न सिखा सके की कब क्या बोलना है?”

अगले शुक्रवार ‘सृजन’ में आशा का ध्यान सरिता की तरफ ही था । वो देखना चाहती थी कि संध्याजी के प्रति उसका रवैया कैसा है । उसने देखा कि सभी से वो बहुत मिल-जुल के बातें कर रही थी पर संध्या जी से सिर्फ औपचारिक रूप से । आशा समझ नहीं पा रही थी ऐसा क्यूँ ।

वापस लौटते वक़्त फिर से बातें चालू हुई । बच्चे, घर-ग्रहस्थी और अचानक से सरिता का सवाल ।

“आपको अजीब नहीं लगता कि संध्या जी बिंदी लगाती है? आज सलवार कुर्ती पहनी थी वो भी बिना चुन्नी के । ”

“हम और आप भी तो रहते हैं ऐसे,” आशा ने थोड़ी सख्ती से जवाब दिया ।

“आपका मतलब है, कल अगर वो आपको जीन्स में दिखे तो आपको कोई आपत्ति नहीं होगी?”

“आपत्ति?” आशा ने सरिता को अचम्भे से देखा । मैं कौन होती हूँ .. और सही में देखा जाये तो मैं, आप या समाज का कोई भी इंसान कौन होता है जो किसी के भी ज़ीवन शैली से आपत्ति दिखाए? ये उनका ज़ीवन है उनकी मर्जी है । जिसको जो पसंद हो वो पहने ।” आशा की आँखें लाल हो रही थी पर वो अपनी शालीनता बनाये रखने की कोशिश कर रही थी ।

“अरे! पर वो तो विधवा है न?”

अब आशा के सब्र का बाँध टूट चुका था । उसे सरिता जैसी मॉडर्न औरत से ऐसी संकीर्ण मानसिकता की अपेक्षा नहीं थी ।

“ मैं देख रही हूँ सरिता, तुम्हे संध्या जी से काफी प्रॉब्लम है । असल में तुम्हे प्रॉब्लम उनसे कम, और उनके जीवन जीने के अंदाज़ से ज्यादा है । एक तरफ तो तुम गरीब-असहाय औरतों के उत्थान के कार्य में जुड़ना चाहती हो और दूसरी तरफ एक औरत के बारे में तुम्हारी इतनी संकीर्ण मानसिकता? मुझे तो हैरानी होती है तुम्हारे दोगलेपन पर । तुम जैसे लोगों के कारण ही आज भी औरत अपना जीवन अपने शर्तों पर नहीं जी पा रही । बिना भावनाओ को समझे बस एक नियमावली बना दी गयी कि विधवा है, तो श्रृंगार न करो और अगर किया, तो कहो कि अब किसके लिए इतना साज श्रृंगार करती है । उसे सफ़ेद-फीके रंगों के कपडे पहनने पर बाध्य कर दो । जो उसने लाल-पीले खुश रंगों को पहना तो कहो कि उसे तो पति के जाने का कोई ग़म ही नहीं । वो पराये मर्द से हंस बोल के बात कर ले तो थू-थू करो । क्या इसी के लिए समाज बना था?”

आशा अपने मन का गुबार निकाले जा रही थी । १ सप्ताह से उसके मन को सरिता का संध्या जी के लिए कहा हुआ वाक्य चुभे जा रहा था ।

“किसी के चले जाने से ज़िन्दगी ख़त्म नहीं होती । जैसे एक पत्नि के देहांत के बाद उसके पति के पहनावे, काम में कोई फर्क नहीं पड़ता , ठीक उसी तरह औरत की भी अपनी एक ज़िन्दगी होती है । एक औरत का अस्तित्व, उसका सुख-दुःख, पहनावा सब कुछ एक आदमी पर निर्भर क्यूँ?”

सरिता से कुछ कहते न बना । वो आशा से नज़रें नहीं मिला पा रही थी । उसने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं था । बस लकीर की फ़कीर बनी उसी संकीर्ण मानसिकता के ठर्रे पर चली जा रही थी ।

“अपनी सोच को बदलो । ख़ास तौर से ये सोच औरतों को बदलनी सबसे ज्यादा ज़रुरी है । फिर चाहे वो समाज के एक और खड़ी विधवा, तलाकशुदा, बलात्कार पीड़िता या निःसंतान औरत हो या समाज के दूसरी ओर खड़ी नज़ारा देख रही बाकी की औरतें । एक को अपने हक के लिए लड़ना चाहिए और दूसरी औरतों को हक दिलाने के लिए । भगवान न करे पर अगर तुम्हारी बच्ची ..”

सरिता ने झट आशा के मुंह पर हाथ रख दिया । “नहीं नहीं आशा । मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकती । मुझे अपनी ही सोच से घृणा हो रही है । एक औरत होकर भी औरत की भावनाओं और स्वच्छंद जीवन शैली पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थी । मुझे माफ़ कर दो । ” सरिता के आँखों से अश्रुधार बहते चले जा रहे थे । आशा जानती थी कि इस पछतावे के आंसू के साथ उसके सारे मलिन भाव भी बह चुके हैं ।

दोस्तों! ये कहानी समाज के कई लोगों की सोच को दर्शाती है । साथ ही साथ उनके सामने कई प्रश्न भी रखती है । आपको ये कहानी कैसी लगी? अपने विचार मुझे ज़रूर लिखें ।

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© Priyanka Kabra

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